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सारस्वत हिंदी सेवा के बारे में

सारस्वत हिंदी सेवा अक्षेन्द्र नाथ सारस्वत द्वारा चलाई जा रही संस्था है।  अक्षेन्द्र नाथ सारस्वत  का जन्म वर्श 1951 में अमृतसर, पंजाब प्रान्त में हुआ। बालपन और षिक्षा काल उत्तर प्रदेष के जनपद बरेली में व्यतीत हुआ। आगरा विष्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा प्राप्त उत्तीर्ण करने के उपरान्त वर्श 1973 में उत्तर प्रदेष पुलिस विभाग में सेवारत हुये । सेवारत रहते हुए वर्श1987 में समाजषास्त्र विशय में  स्नातकोत्तर परीक्षा रूहेलखण्ड विष्वविद्यालय,बरेली से उत्तीर्ण की तथा वर्श 1992 में ‘‘सामाजिक न्याय,मानवाधिकार और पुलिस‘‘ षीर्शक पर षोधपत्र प्रस्तुत करने पर पीएच0डी0 की उपाधि प्राप्त की। वर्श 1998 में उक्त षोधपत्र राधा पब्लिकेषन, नई दिल्ली से प्रकाषित हुआ। उक्त षोधपत्र को भारत सरकार के पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो,नई दिल्ली द्वारा 'पं0 गोविन्द बल्लभ पंत पुरस्कार योजना' के अन्तर्गत वर्श 1999 - 2000 में पुरस्कृत किया गया। उत्तर प्रदेष पुलिस पत्रिका जो कि पूर्व में पुलिस अकादमी, मुरादाबाद से प्रकाषित होती थी में कई लेख भी प्रकाषित हो चुके हैं।  वर्श 2000 में अपने पिता की पुस्त...
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Geeta Updesh

  हरि ओम् श्रीमद्भगवत्गीता विशादयोग प्रथम अध्याय धृतराश्द्र उवाच- ष्लोक- धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेताः युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाष्चैव किमकुर्वत संजय।। 1 ।। संस्कृत गद्य/ हिन्दी षब्दार्थ संजय-हे संजय, धर्मक्षेत्रे-धर्मक्षेत्र,कुरूक्षेत्रे- कुरुक्षेत्र में, युयुत्सवः - युद्ध की इच्छा वाले, समवेताःः- एकत्र हुये,मामकाः-मेरे, च- और, पाण्डवाः -पाण्डुपुत्रों ने, किम्- क्या, अकुर्वत- किया ?    अर्थात् - राजा धृतराश्द्र ने संजय से पूछा कि-हे संजय, युद्ध की इच्छा से  एकत्र हुये धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र में मेरे और पाण्डु पुत्रों ने अब तक क्या किया? 

दो मुक्तक(कविता)

केन्द्रित हो होकर हिरण्य जब, करता साधन सीमित- त्राहि त्राहि तब मचती भूपर, भय से जन अनुकम्पित। दैत्य-वृत्ति से होम रचा कर, भस्म होलिका करती-- किन्तु राम का प्यारा फिर भी, है प्रह्लाद सुरक्षित।।1।। आये फिर नर-सिंह एक ही, मुक्त सभी को करने-- रंजन जन को शुभ जीवन देने, जीवन में रंग भरने। पर प्रह्लाद तपस्वी उसका, कर सकता आह्वाहन- भीरू, भंगोड़े, कुटिल, स्वार्थरत, जनमे केवल मरने।।2।। ‘आचार्य - हिन्दी साप्ताहिक 22 मार्च 1962, वर्ष 10, अंक 51, पृष्ठ-1

दो मुक्तक( कविता)

वर्तमान सम्मान न अपने युग से कब पाया-- भूत बना, सुधियों का स्वामी, मानस पर जा छाया दीप जलाये क्षणे क्षणे जब, उसने भावी के घर-- तब अतीत को दुनिया रोई- हर कोई पछताया।।1।। कर्मठ रवि की कदर न जब यह जग वाले कर पाये-- ओढ़ सांझ की चादर उसने, रक्तिम अश्रु बहाये। तम की प्यारी इस नगरी ने दीप जलाये हॅंस कर-- पर कर्तव्य परायण दिनकर, पुनः प्रमाद मिटाये।।2।। जागृति- हिन्दी मासिक पत्रिका, जुलाई 1962 अंक पृष्ठ 33

मेरा प्यार उपेक्षित करके (कविता)

मेरा प्यार उपेक्षित करके तुम भी प्यार नहीं पाओगे, सुधियों के सूखे पनघट से कुछ भी सार नहीं पाओगे।। ललित लोल लावण्य लजीली, लतिका वन में शोभापाती तन से तरूणाई को पाकर अल्हड़ मस्ती से बल खाती किन्तु सभी यह प्राण प्रणय के बन्धन में बंध कर ही होता, मधुवन के अभिसार बिना तुम, कर श्रृंगार नहीं पाओगे मेरा प्यार उपेक्षित करके तुम भी प्यार नही पाओगे। प्रकृति पुरूष के भुजबन्धन में बंधी तभी विस्तार हुआ यह टीस घुटी जब हृदय में विस्तृत तब से प्यार हुआ यह लक्ष्य, पथिक के चरणों से ही पावन सदा हुआ करता है मुझको करके सीमित तुम भी कर विस्तार नहीं पाओगे, मेरा प्यार उपेक्षित करके तुम भी प्यार नहीं पाओगे।। हिन्दी साप्ताहिक - सहयोगी, कानपुर, 26 फरवरी 1962ई0, वर्ष-16 अंक-9, पृष्ठ संख्या 9