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ईश इन्हें सद्बुद्वि दो(कविता)

  लगे मांगने वोट भिखारी। वोट हमें दो, वोट हमें दो- विजय श्रेय सिर अपने तुम लो। भोली जनता कुछ घबराई-दल, दल की दलबन्दी आई।। दिखला कर निज ‘मेनीफेस्टो‘- कहते इसको कर दो ‘डिट्टो‘ रामू धोबी, कलुआ भंगी- इनके हैं सब सारे संगी।। चाचा, ताऊ, अम्मा, भाई-बहन, बना कर आश लगाई। दुखिया भूखें वोटो के ये सुखिया सूखे वोटों से ये।। द्वार द्वार पर हाथ पसारें-इसे पुकारें-उसे पुकारें कहते ये हम हैं जन सेवक- पर है सचमुच धन के सेवक।। जगा ग्रहण का सा कोलाहल--बरसायें यों चांद हलाहल। बलिदानी इतिहास हमारा- बहुत पुरातन जन हितकारी।। लगे मांगने वोट भिखारी।।1।। इक दूजे पर दोष लगाते-इक दूजे पर रोष दिखाते। हमने देश विकास किया है- उसने देश विनाश किया है।। टुकड़े भारत मां के करके- इनके पेट भरे ना भर के। बन्धु बने थे इनके लगे हड़पने कुछ भारत भूमी।। भ्रष्टाचारी सत्ता धारी- जनता अर्थ भूख की मारी। उलझा देश धर्म की नीति- हर की जन से जन की प्रीति।। ‘‘सुखं दिशा के अॅंध पुजारी‘‘-बनते निर्धन के हितकारी। ‘‘शोस्लिज्म के प्राण सहारे‘‘- जैसे बुझे हुये अॅंगारे।। ‘प्रण ये साम्प्रदायिकता के‘, --दावे करते मानवता के। ‘ब्लेक मेल‘ ह...

नैनन नीर भरे(कविता)

  हंस कर कीमत बनाया तुमको--नैनन नीर जरे-- अब नैनन नीर जरे। जाने किसकी बातों में आ कैसी आग लगाई, बावन के ढाई पग जैसे निकले अक्षर ढाई, प्रीत बुरी रे, प्रीत बुरी यह ब्रज का कण-कण कहता-- बंशी की सुधियों को लेकर--यमुना तीर जरे- अब यमुना तीर जरे।।1।। रेखा चित्र बना कर कोई उसको रंगता रहता, मौन बना कर मुझको भी खुद, सूने न कुछ भी कहता, अब तो घावों के सुमनों की खुशबू है सुख देती- पहले पीड़ा दुख देती थी-दुख को जीर जरे- अब दुख को पीर जरे।।2।। इस पंथ में राहें ही राहें मंजिल भी यह कहती, बीत उम्र सब जाती चलते, दो अंगुल दूरी रहती, मैं तन, मन तुम मिले न मिल कर राधा मोहन जैसे- इसी लिये तो बाट देखती--तिल-तिल धीर जरे-- अब तिल-तिल धीर जरे।।3।। काव्य पुष्प, पूर्वोतर रेलवे की मंडल हिन्दी समिति, इज्जतनगर की ओर से प्रकाशित।

हर हमदर्दी गई फिसलती(कविता)

  किश्तों में जीने की आदत पड़ी जिन्दगी को जीने की। जैसे लौ है कर्ज चुकाती खंडहर के दीपक झीने की।। किसने हरण किया सुध-बुध की कड़वाहट का नशा मिला कर, लूट रहा है मेरी निधियां गम के भर-भर जाम पिला कर, इस पर भी तो नजर न आये शाकी की परछाई तक भी-- घाव बढ़ाये चली वात जब मेरे जखमों को सीने की ।।1।। नेह नीर से पाषाणों के उगती काई गई हृदय पर, हर हमदर्दी गई फिसलती जो भी आई समय समय पर, कौन सहारा नहीं चाहता जीवन को जीने की खातिर- किसने करी जौहरी के बिन इस जग में कदर नगीने की।।2।। दैहिक सुख के लिये सभी यह रची गई जब रचना सारी, मुझसे ही क्यों दीवारों सी झीनी झीनी परदे - दारी, मेरा ही अपराध यही बस भावुकता का हूं बंजारा-- जुड़ी हुई है किस्मत कैसी लहरों के साथ सफीने की।।3।। यादों की बारात चली पर लिये जनाजा अरमानों का, कैसा है यह जीवन जीना हम जैसे ‘रवि‘ इन्सानों का, परखा घर के आंगन को भी निकल देहरी से भी देखा-- हसरत भरी निगाहों से ही मुझे इजाजत है पीने की।।4।। काव्य पुष्प, पूर्वोतर रेलवे की मंडल हिन्दी समिति, इज्जतनगर की ओर से प्रकाशित

एक मुक्तक(कविता)

जग सारा तो यहां विवेकी किसके साथी होलें- अपनी अपनी सोचे सब ही अपनी अपनी बोलें। बुद्वि प्यार की नहीं कसौटी , हृदय पारखी इसका- सपनों के पलड़ों में जिसको दृग के मोती तोलें।। सहयोगी , कानपुर , 19 दिसम्बर 1960, पृष्ठ -  5

जल-कण-वैभव(कविता)

  वैभव देखा जब जल-कण का, सिमट गया तूफान लहर में। चैंक उठी प्रभुता की छाया, कण में देखी जब निज काया किसने बांटा, किसको बांटा? शेष शून्य था कि अहर में। समझ न पाया निज प्रतिध्वनि को, श्वास बनी उच्छ्वास विकल हो, जीवन की मुसकान व्यंग बन लगी अखरने पहर-पहर में, उद्वत जग का पथिक अनूठा, लगा दीखने रूठा-रूठा, असमंजस, संघर्ष न माना, तब से रवि है जलधि हहर में। मासिक पत्रिका ‘‘भारती‘‘ भारतीय विद्या भवन, चौपाटी बम्बई-7 द्वारा प्रकाशित संपादक चन्द्र शेखर पाण्डेय, अंक 7 वर्ष-4, फरवरी 1960

निर्माण-गीत(कविता)

  अभी तो करना है जन-जन को, भारत गौरव का निर्माण। मिटी हुई सी रेखाओं से फिर से, चित्र बनाने हैं, घास फूस की झोंपड़ियों के बदले महल सजाने है, लुटा हुआ जो युग से जीवन भरनी उसमें नव सुषमा, अभी तो इस धरती के सौरभ से, जगने है कितने प्राण। बांध और निर्माण केन्द्र, नव भारत के हैं शुभ मन्दिर, यही हमारे गिरजा, मस्जिद, श्रमिकों के हैं भाग्य प्रखर, भौतिक उन्नति के दर्पण में दिखती है प्रभु की छाया, अभी तो देना है मिल जुल कर हमको इसका शुभ्र प्रमाण। बहक न जाना ऊंच नीच के पथ में, उन्नति के राही। पथ का पत्थर भी है तेरा अंग, सृजन के उत्साही बीते कल की आकुलता में कल का सुख ना तड़ उठे, अभी तो साथी संग है ऐसे चतुर-चतुर से, पर, नादान। इन निर्माणों से भी बढ़ चढ़ चरम लक्ष्य है शेष अभी, मानवता की प्राण सुरक्षा, शेष मनुज अभिषेक अभी, शक्ति-भक्ति के चिर संगम से जीवन को उत्थान मिले, अभी तो इस आचरण-सुधा का करना है हमको मधुपान। भारत सरकार की पत्रिका ‘‘ग्राम सेवक, वर्ष 1956 के नवम्बर में पृष्ठ 13 पर प्रकाशित।

महॅंगाई की जोंक(कविता)

 मन के दुरावों की वर्षा सें लहलहायें खेत ‘अभावों‘ के उपजे ‘घेरावों‘के गोखरू रक्त झरने लगा प्रगति के चरण से। पड़ गये ‘बिखरावों के छिद्र एकता के अॅंचरे में। बाढ़ आयी आपाधापी की महकी स्वार्थ की कटेली। गूंज उठे स्वर रोक लो बेच दो बेच दो रोक लो चढ़ते गये भाव। खून चूस ले गयी जोंक महंगाई की। मैंने पूछा जिन्दगी से कहां जियोगी कैसे? सिर झुका, अनमनी- कर इशारा कंकालों को बोली-ऐसे । स्वतं.त्र भारत लखनऊ के किसी रविवासरीय अंक में प्रकाशित। 

कटीले फूल(कविता)

  भारत को भारत की नजरों तुम जरा निहारो-- इसकी भी भाषा में साथी बढ़कर इसे पुकारो। सीधा, बच्चा सरल हृदय है इसको मत उरूझाओ-- कागज के फूलो से इसका तुम मत रूप संवारों।।1।। पश्चिम के उपनेत्र लगाकर देखें अपना दर्पण-- लाख चाहने पर भी लेकिन कर न सके निज दर्शन। उलटा हुआ, दिव्यता खोयी खोया अपना आपा-- सरल दृष्टि बन गयी वक्रतम लगता दूषित तन मन।।2।। कुछ को प्रिय वाशिगटन लन्दन कुछ को पेंकिग प्यारा-- भक्त मास्को के कुछ पूजें प्रतिपल लाल सितारा। कुछ का हृदय मरूस्थल में जो श्रद्धा दीप जलाये-- किन्तु न निज घर में ही ये जन होने दे उजियारा।।3।। विश्व बन्धुता के नारों में इतना नेह बहाया-- घर का दीपक खाली होकर बना तमस की छाया। कितना रूखा, सूखाा, सूना, बढ़ी यहां तक सीमा-- घृणा करें मन तन से, मन से करती नफरत काया।।4।। स्वतंत्र भारत लखनऊ के किसी रविवासरीय अंक में प्रकाशित 

पर जो घाव सुमन से लगता(कविता)

  चाहे कितना भी गहरा हो घाव-शूल का भर ही जाता। पर जो घाव सुमन से लगता जीवन में वह कब मिट पाता।। कंटक तो बदनाम यूहीं हैं तन मन से वे सदा एक से। चलने वालों की गलती है चलते क्यों वो नहीं देख के, किन्तु ओट यह कैसी है इन कलिकाओं की कोमलता की- अंग-अंग जिनके छूते ही पहले खिलता फिर मुरझाता। घाव शूल का भर ही जाता।। हो सकती है जहां चिकित्सा तन पर लगे सभी घावों की, और होड़ भी लगी हुई है अनुसंधानों के भावों की, वहां निदान आज तक इनका नहीं किसी ने करवाया है- रिसते रहते व्रण रस से नित उपवन पीड़ा का हरियाता। घाव शूल का भर ही जाता।। पनिहारिन के भुज बंधन में बंध कर घट ने प्यास बुझाई, कौन प्यार को नहीं चाहता किसको नहीं जवानी भाई, अमर-बेल के आलिंगन सा जिसको प्यार मिला सुमनों से- वह क्या मधु - ऋतु को पहचाने वह जाने कब सावन आता। घाव शूल का भर ही जाता।। पर जो घाव सुमन से लगता जीवन में वह कब मिट पाता।। स्वतंत्र भारत लखनऊ के किसी अंक में प्रकाशित। 

नौ लाये तेरह के भूखे(कविता)

  नौ लाये तेरह के भूखे। हम पहली को तनखा लाये, घर की दुनिया आस लगाये, बैठी थी जो हर्षित ऐसे, फूल खिले हों फीके जैसे। पिछला-अगला जोड़ लगाया, दिया किराया राशन आया, कुछ भुगताया इधर उधर का, ज्यों-त्यों काटा पाप उदर का।। ऐसे बट तनखाह गयी सब, टीस,फीस की जीवन सूखे। रोटी है तो वस्त्र नहीं है, यहां कहां सुख और कहीं है, कपड़ों पर पैबन्द लगाकर, निर्धनता के जख्म छिपा कर। घरवाली आंसू बहाती, ‘मांग‘ अधूरी हॅंसी उड़ाती, बिन जूतों के पढ़ने जाते, बच्चे बाबू के कहलाते। इधर -उधर सब लेने वाले, बिगड़-बिगड़ कर बोले रूखे। एक अकेला जीवन रेला, किसका मोह खेल यह खेला, अंदर-बाहर की चिन्ता खाये, मौत खड़ी जैसे मुस्काये। होता जाता बोझिल जीवन, और और ही दिन दिन क्षणक्षण, यह भी तो है जीना-जीना, खून जिगर का अपने पीना। माया छल के, छाया ढल के, कल की आशा रखती भूखे। जीना मरना बीमारी भी आ पड़ती दुनियादारी भी, महंगाई का यह आलम है, गम को भी जीने का गम है। दो पाटों में मध्य वर्ग को, पिसने हेतु बनाया है तो, शायद जग के भगवानों ने कुछ धरती के अरमानों ने। फूलों का अस्तित्व यही सब रहे बहारी कंटक ‘स्वतंत्र भारत‘ हिन्दीदैनिक, लखनऊ में प्रका...

जीवन साथी के प्रति(कविता)

 शोभा मेरी आत्मा तृप्ति की, साध तुम्ही बन पाई- जर जर तन से क्या, जब तुम नित, नई वधू सी भाईं। रूप सुरा, यौवन आकर्षण, सच तो यह है साथी- प्यार न बन्दी इनका, है यह मनसिज की पहुनाई।। बरेली के किसी समाचार पत्र में प्रकाशित। जननायक को श्रद्वांजलि फूल - स्वर्ग का मानवता की फुलवाली महका कर, लौट गया फिर नन्दन-बन में अपनी छवि छिटका कर। किन्तु हुआ यह सब कुछ सहसा फटी धरा की छाती, रोक न पाया, पथ नभ रोया परवशता दिखलाकर।। वह तो स्वयं राष्ट्र था जिसको सीमा बांध न पाई- पीड़ित भीत जगत ने जिससे अपनी पीर मिटाई। अगर न होता ऐसा तो फिर राह न पाती दुनिया- स्नेह दीप से पाये बाती ज्योतित हो अंगनाई।। लेकिन शोक-मग्न होकर भी श्रद्वा दीप न जलता- भारी मन का बोझा लेकर निर्बल तन कब चलता। जीवन गति, वियोग से पाता निर्झरणी यह कहती- दीप जला लो बढ़ने वालो कह जाता रवि ढलता।। ‘स्वतन्त्र भारत‘ दैनिक हिन्दी समाचार,लखनऊ पत्र के अंक 7 जून 1964 में पृष्ठ -7 ‘रसवंती‘ मासिक पत्रिका,लखनऊ नेहरू स्मृति अंक, वर्ष-7,अंक-7, जुलाई 1964 संपादक डा0 प्रेम नारायण टंडन, पृष्ठ 53

दीवाली के दीप(कविता)

 दीवाली के दीप ये, करते हैं संकेत। गौरव गरिमा को लिये, हम हैं सदा सचेत।।1।। जनसत्ता की ज्योति है, बलिदानों का तेल। देश-दीप निस्तेज है, बिना हुए यह मेल।ं।2।। बरेली के बरेली समाचार प़त्र के अज्ञात अंकमें प्रकाशित। 

कुछ वचन तो भाॅंवरो कें तुम निभाओ(कविता)

 इन तड़पते श्रावणों को मत सताओं, और अब इस दर्द को प्रिय मत बढ़ाओ। आंसुओं की राह में, यदि मिलन तुमसे, हो कही जाता, सुगम वन-पंथ कटता। टूटता कब दिल प्रणय का, रूप का भी, इस जगत् में यों न शोभे मूल्य घटता।। कौन जाने, किस सुमन की याद में ये, ओस ने आंसू बहाये प्रा बेला। इस तरह तुम कामना को मत रूलाओ। कुछ वचन तो भाँवरों के तुम निभाओ।। छोड़ पनिहारिन गयी जब प्यास कैसी, तपोनिष्ठा हो गयी अनुभूतियां सब। नव वधूटी सी पुनः फिर ठुमक आयीं-- नीर भरने, किन्तु निकली मूर्तियां सब।। प्यास बुझ जाती भला कब, वह तुम्हारी भक्त थी, अनुरक्त, तुममें बावरी सी इस तरह बन निठुर मत नाता छुड़ाओ। प्राण हो तुम, प्राण मेरे पास आओ।। चन्द्र ने घूंघट उठाया तो मदिर सी, रात बन कर लड़खड़ायी योगमाया। दुःख मेरा यदि न आंचल थाम लेता, तो न जाने जन्मती कब प्रात काया।। याद होगा वह तुम्हें सब, जब मिले थे- नयन पंकज मुंद, खिले थे प्रथम क्षण में कौन ऐसी शीघ्रता है, प्रिय बताओ, सॅंग निभाने आ रहा रूक तनिक जाओ। मैं तुम्हें जाने न दूंगा यों अकेले इस जगत से ले निराशा बिन जिये ही मैं तुम्हें जाने न दूंगा प्यास लेकर- घूंट मधु का एक भी तो बिन पिये ...

हिन्दी रूबाइयाॅं(कविता)

  जब से तुमने सरल दृष्टि से मुझको प्रिये निहारा, रूप, प्यार की मादकता का लेने लगा सहारा घुटी-घुटी- सी चुभन टीस की जीवन बनकर नाची, लगने लगा तभी से मैं भी अपने को खुद प्यारा। क्षीर सिन्धु की अभिनव सुषमा नीलाम्बर में छाई, वर्षा ऋतु के अरमानों ने दूधों से नहलाई, पूर्ण प्रणय सी चपल रूपसी इस पर रात कुंवारी- आग लगाती, आग बुझाती, शरद्-पूर्णिमा आई। घूंघट के अन्तःपुर में ही प्रिय छवियों का मेला, प्राण लगा रहने दो यों ही है यौवन मधु-बेला, प्यार रूप के इसी द्वैत से बनी वेदना जीवन, तुमको शपथ लाज की गोरी रहे न दर्द अकेला।।  पुस्तक- हिन्दी रूबाईयाॅं - संपादक ‘नीरज‘ हिन्द पाकेट बुक्स, प्रा0 लि0, शाहदरा, दिल्ली-32

गौरव गीत(कविता)

हम हिन्दू हम हिन्दू इस पर हमें बहुत ही गर्व है। मानवता के अमर पुजारी , यही हमारी बान है।। कभी न हमने जुल्मी बनकर , रौंदा हैं संसार को , नाम न मजहब का लेकर के , खींचा है तलवार को , कभी किसी का धर्म न बदला , धोखे और फरेब से , प्यार हमारा जीवन-दर्शन , इस पर हमें गुमान है।। 1 ।। हम हिन्दू........... ‘ सर्वे भवन्तु सुखिनः‘ की , नित हम ही करते कामना , हर प्राणी सद्भाव लिए हो , इसकी रखते भावना , नहीं चाहते अपना ही हम , सब जग का कल्याण हो , बढे़ धर्म ही , मिटे अधर्मी , यह ही लक्ष्य महान है।ं 2 ।। हम हिन्दू ......... ‘ जाकी रही भावना जैसी‘ , प्रभु का वही स्वरूप है , और बताओ इससे बढ़ कर उसका फिर क्या रूप है , ‘ पर पीड़ा ही अधमाई है‘ , करते हम उद्घोषणाा , ‘ पर हित सरिस धर्म नहीं कोई , यह ही सच्चा ज्ञान है।। 3 ।। हम हिन्दू  ....... मधु कैटभ या रक्तबीज जब , लीला करे विनाशिनी , शक्ति हमारी तब बन जाती , ‘ दुर्गा -दुर्गति- हारिणी‘ , नहीं सिर्फ हम भोले शिव ही , रूद्र बने हनुमान भी , राम हमारे ‘रवि‘ मर्यादा , कृष्ण हमारा  प्राण है ।। 4 ।। हम हिन्दू ........... हिन्दू समाज को विश्व हिन्दू ...

गोरा-बादल मैं कहलाऊॅं

मुझे न दो वह शिक्षा जिससे ‘‘हीरोकट‘‘ ही बन रह जाऊॅं । मुझे चाहिए शिक्षा ऐसी ‘गोरा-बादल‘ मैं कहलाऊॅं।। गुरू  गोविन्द सिंह के बालक अमर हुए जो  शिक्षा पाकर , ‘‘बाल हकीकत‘‘ बना ‘हकीकत‘ जिसने अपना सिर कटवा कर, ‘‘जयमल पत्ता‘‘ जिस साॅंचे में ढले मुझे भी उसमें ढालो। बढता आता है अॅंधियारा कैसे उसमें आग लगाऊॅं।। गोरा बादल मैं कहलाऊॅं। मुझसे भावी भारत की हैं बॅंधी हुई अनगिन आशायें, लेकिन मेरा रूप देख कर लाखों पतझड़ हॅंसी उड़ायें । दोगे मेरा हाथ तात, जब कल के हाथों में ले जाकर --  खोया खोया और निकम्मा कहीं न अपने को तब पाऊॅं।। गेरा - बादल मैं कहलाऊॅ।। शासन अपना, अपने पर हो इसको प्रिय स्वतन्त्रता कहते, जो उच्छ्ंख्ल बने फिरते  वे नित दास बने ही रहते, ऐसा पाठ पढ़ाओ मुझको अपने को पहचान सकूॅं मैं -- बनूॅं सहारा मैं प्रकाश का ज्योतित रह कर राह दिखाऊॅ।।। गोरा- बादल मैं कहलाऊॅं। (1) मासिक  पत्रिका  - बाल सखा - जनवरी 1968 वर्ष 52 अंक - 1 सम्पादक - लल्ली प्रसाद पाण्डेय (2) मासिक पत्रिका ‘विश्व ज्योति‘ अक्टूबर 197., पृष्ठ - 43, संपादक आचार्य विश्वबन्धु, साधु आश्रम, हो...

जननायक को श्रद्वांजलि

फूल - स्वर्ग का मानवता की फुलवाली महका कर, लौट गया फिर नन्दन-बन में अपनी छवि छिटका कर। किन्तु हुआ यह सब कुछ सहसा फटी धरा की छाती, रोक न पाया, पथ नभ रोया परवशता दिखलाकर।। वह तो स्वयं राष्ट््र था जिसको सीमा बांध न पाई- पीड़ित भीत जगत ने जिससे अपनी पीर मिटाई। अगर न होता ऐसा तो फिर राह न पाती दुनिया- स्नेह दीप से पाये बाती ज्योतित हो अंगनाई।। लेकिन शोक-मग्न होकर भी श्रद्वा दीप न जलता- भारी मन का बोझा लेकर निर्बल तन कब चलता। जीवन गति, वियोग से पाता निर्झरणी यह कहती- दीप जला लो बढ़ने वालो कह जाता रवि ढलता।। ‘स्वतन्त्र भारत‘ दैनिक हिन्दी समाचार,लखनऊ पत्र के अंक 7 जून 1964 में पृष्ठ -7 ‘रसवंती‘ मासकि पत्रिका,लखनऊ नेहरू स्मृति अंक, वर्ष-7,अंक-7, जुलाई 1964 संपादक डा0 प्रेम नारायण टंडन, पृष्ठ 53

पूजा

पूजा शब्द का प्रयोग करते ही, हृदय में श्रद्धा, विनय सम्मान और समर्पण के भाव का प्रादुर्भाव हो जाता है। जब तक यह अनुभूति साधक के अन्तस में जागृत नहीं होती, तब तक किसी भी प्रकार की इस क्रिया का, मात्र एक प्रदर्शन ही रह  जाता है। जो वह न उस व्यक्ति के हेतु ही फल दायिनी होती है और न ही उसका प्रभाव जन साधारण के मानस पर ही पड़ता है। पूजा दो प्रकार की होती है-‘‘बाह्य और आभ्यन्र‘‘। बाह्य पूजा के भी दो प्रकार होते हैं। ‘‘वैदिकी और तान्त्रिकी‘‘। वैदिक मन्त्रों से जो पूजा की जाती है वह वैदिकी तथाा तन्त्रोक्त मन्त्रो से जो पूजा सम्पन्न होती है उसे तान्त्रिकी पूजा कहते है। विधि-- अपनी वित्तीय शक्ति के अनुसार सामग्रियाॅं जुटा कर, (पुष्प, चन्दन, धूप, वस्त्र, नवेद्य, ताम्बूल और दक्षिणा आदि) पूजा सम्पन्न करनी चाहिये। चित्त को शान्त करके सावधाान होकर तथा दम्भ एवं अहंकार से शून्य होकर बैठे क्योंकि मानस के रचयिता भी इस ओर सीधे शब्दों में संकेत करते हैं कि - निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।। सच पूछो तो यह अहं की ही दीवार है जो जीवात्मा को परमात्मा से अलग किये हुये ह...

सारस्वत हिंदी सेवा के बारे में

सारस्वत हिंदी सेवा अक्षेन्द्र नाथ सारस्वत द्वारा चलाई जा रही संस्था है।  अक्षेन्द्र नाथ सारस्वत  का जन्म वर्श 1951 में अमृतसर, पंजाब प्रान्त में हुआ। बालपन और षिक्षा काल उत्तर प्रदेष के जनपद बरेली में व्यतीत हुआ। आगरा विष्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा प्राप्त उत्तीर्ण करने के उपरान्त वर्श 1973 में उत्तर प्रदेष पुलिस विभाग में सेवारत हुये । सेवारत रहते हुए वर्श1987 में समाजषास्त्र विशय में  स्नातकोत्तर परीक्षा रूहेलखण्ड विष्वविद्यालय,बरेली से उत्तीर्ण की तथा वर्श 1992 में ‘‘सामाजिक न्याय,मानवाधिकार और पुलिस‘‘ षीर्शक पर षोधपत्र प्रस्तुत करने पर पीएच0डी0 की उपाधि प्राप्त की। वर्श 1998 में उक्त षोधपत्र राधा पब्लिकेषन, नई दिल्ली से प्रकाषित हुआ। उक्त षोधपत्र को भारत सरकार के पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो,नई दिल्ली द्वारा 'पं0 गोविन्द बल्लभ पंत पुरस्कार योजना' के अन्तर्गत वर्श 1999 - 2000 में पुरस्कृत किया गया। उत्तर प्रदेष पुलिस पत्रिका जो कि पूर्व में पुलिस अकादमी, मुरादाबाद से प्रकाषित होती थी में कई लेख भी प्रकाषित हो चुके हैं।  वर्श 2000 में अपने पिता की पुस्त...