जब से तुमने सरल दृष्टि से मुझको प्रिये निहारा,
रूप, प्यार की मादकता का लेने लगा सहारा
घुटी-घुटी- सी चुभन टीस की जीवन बनकर नाची,
लगने लगा तभी से मैं भी अपने को खुद प्यारा।
क्षीर सिन्धु की अभिनव सुषमा नीलाम्बर में छाई,
वर्षा ऋतु के अरमानों ने दूधों से नहलाई,
पूर्ण प्रणय सी चपल रूपसी इस पर रात कुंवारी-
आग लगाती, आग बुझाती, शरद्-पूर्णिमा आई।
घूंघट के अन्तःपुर में ही प्रिय छवियों का मेला,
प्राण लगा रहने दो यों ही है यौवन मधु-बेला,
प्यार रूप के इसी द्वैत से बनी वेदना जीवन,
तुमको शपथ लाज की गोरी रहे न दर्द अकेला।।
पुस्तक- हिन्दी रूबाईयाॅं - संपादक ‘नीरज‘ हिन्द पाकेट बुक्स, प्रा0 लि0, शाहदरा, दिल्ली-32