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हर हमदर्दी गई फिसलती(कविता)

 



किश्तों में जीने की आदत पड़ी जिन्दगी को जीने की।

जैसे लौ है कर्ज चुकाती खंडहर के दीपक झीने की।।


किसने हरण किया सुध-बुध की कड़वाहट का नशा मिला कर,

लूट रहा है मेरी निधियां गम के भर-भर जाम पिला कर,

इस पर भी तो नजर न आये शाकी की परछाई तक भी--

घाव बढ़ाये चली वात जब मेरे जखमों को सीने की ।।1।।


नेह नीर से पाषाणों के उगती काई गई हृदय पर,

हर हमदर्दी गई फिसलती जो भी आई समय समय पर,

कौन सहारा नहीं चाहता जीवन को जीने की खातिर-

किसने करी जौहरी के बिन इस जग में कदर नगीने की।।2।।


दैहिक सुख के लिये सभी यह रची गई जब रचना सारी,

मुझसे ही क्यों दीवारों सी झीनी झीनी परदे - दारी,

मेरा ही अपराध यही बस भावुकता का हूं बंजारा--

जुड़ी हुई है किस्मत कैसी लहरों के साथ सफीने की।।3।।


यादों की बारात चली पर लिये जनाजा अरमानों का,

कैसा है यह जीवन जीना हम जैसे ‘रवि‘ इन्सानों का,

परखा घर के आंगन को भी निकल देहरी से भी देखा--

हसरत भरी निगाहों से ही मुझे इजाजत है पीने की।।4।।



काव्य पुष्प, पूर्वोतर रेलवे की मंडल हिन्दी समिति, इज्जतनगर की ओर से प्रकाशित