चाहे कितना भी गहरा हो घाव-शूल का भर ही जाता।
पर जो घाव सुमन से लगता जीवन में वह कब मिट पाता।।
कंटक तो बदनाम यूहीं हैं तन मन से वे सदा एक से।
चलने वालों की गलती है चलते क्यों वो नहीं देख के,
किन्तु ओट यह कैसी है इन कलिकाओं की कोमलता की-
अंग-अंग जिनके छूते ही पहले खिलता फिर मुरझाता।
घाव शूल का भर ही जाता।।
हो सकती है जहां चिकित्सा तन पर लगे सभी घावों की,
और होड़ भी लगी हुई है अनुसंधानों के भावों की,
वहां निदान आज तक इनका नहीं किसी ने करवाया है-
रिसते रहते व्रण रस से नित उपवन पीड़ा का हरियाता।
घाव शूल का भर ही जाता।।
पनिहारिन के भुज बंधन में बंध कर घट ने प्यास बुझाई,
कौन प्यार को नहीं चाहता किसको नहीं जवानी भाई,
अमर-बेल के आलिंगन सा जिसको प्यार मिला सुमनों से-
वह क्या मधु - ऋतु को पहचाने वह जाने कब सावन आता।
घाव शूल का भर ही जाता।।
पर जो घाव सुमन से लगता जीवन में वह कब मिट पाता।।
स्वतंत्र भारत लखनऊ के किसी अंक में प्रकाशित।