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जननायक को श्रद्वांजलि


फूल - स्वर्ग का मानवता की फुलवाली महका कर,

लौट गया फिर नन्दन-बन में अपनी छवि छिटका कर।

किन्तु हुआ यह सब कुछ सहसा फटी धरा की छाती,

रोक न पाया, पथ नभ रोया परवशता दिखलाकर।।


वह तो स्वयं राष्ट््र था जिसको सीमा बांध न पाई-

पीड़ित भीत जगत ने जिससे अपनी पीर मिटाई।

अगर न होता ऐसा तो फिर राह न पाती दुनिया-

स्नेह दीप से पाये बाती ज्योतित हो अंगनाई।।


लेकिन शोक-मग्न होकर भी श्रद्वा दीप न जलता-

भारी मन का बोझा लेकर निर्बल तन कब चलता।

जीवन गति, वियोग से पाता निर्झरणी यह कहती-

दीप जला लो बढ़ने वालो कह जाता रवि ढलता।।


‘स्वतन्त्र भारत‘ दैनिक हिन्दी समाचार,लखनऊ पत्र के अंक 7 जून 1964 में पृष्ठ -7

‘रसवंती‘ मासकि पत्रिका,लखनऊ नेहरू स्मृति अंक, वर्ष-7,अंक-7, जुलाई 1964 संपादक डा0 प्रेम नारायण टंडन, पृष्ठ 53