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महॅंगाई की जोंक(कविता)


 मन के दुरावों की वर्षा सें
लहलहायें खेत ‘अभावों‘ के
उपजे ‘घेरावों‘के गोखरू
रक्त झरने लगा
प्रगति के चरण से।
पड़ गये
‘बिखरावों के छिद्र
एकता के अॅंचरे में।
बाढ़ आयी आपाधापी की
महकी स्वार्थ की कटेली।
गूंज उठे स्वर
रोक लो बेच दो
बेच दो रोक लो
चढ़ते गये भाव।
खून चूस ले गयी
जोंक महंगाई की।
मैंने पूछा जिन्दगी से
कहां जियोगी कैसे?
सिर झुका,
अनमनी-
कर इशारा
कंकालों को
बोली-ऐसे ।


स्वतं.त्र भारत लखनऊ के किसी रविवासरीय अंक में प्रकाशित।