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पूजा


पूजा शब्द का प्रयोग करते ही, हृदय में श्रद्धा, विनय सम्मान और समर्पण के भाव का प्रादुर्भाव हो जाता है। जब तक यह अनुभूति साधक के अन्तस में जागृत नहीं होती, तब तक किसी भी प्रकार की इस क्रिया का, मात्र एक प्रदर्शन ही रह  जाता है। जो वह न उस व्यक्ति के हेतु ही फल दायिनी होती है और न ही उसका प्रभाव जन साधारण के मानस पर ही पड़ता है।

पूजा दो प्रकार की होती है-‘‘बाह्य और आभ्यन्र‘‘। बाह्य पूजा के भी दो प्रकार होते हैं। ‘‘वैदिकी और तान्त्रिकी‘‘। वैदिक मन्त्रों से जो पूजा की जाती है वह वैदिकी तथाा तन्त्रोक्त मन्त्रो से जो पूजा सम्पन्न होती है उसे तान्त्रिकी पूजा कहते है।

विधि--

अपनी वित्तीय शक्ति के अनुसार सामग्रियाॅं जुटा कर, (पुष्प, चन्दन, धूप, वस्त्र, नवेद्य, ताम्बूल और दक्षिणा आदि) पूजा सम्पन्न करनी चाहिये।

चित्त को शान्त करके सावधाान होकर तथा दम्भ एवं अहंकार से शून्य होकर बैठे क्योंकि मानस के रचयिता भी इस ओर सीधे शब्दों में संकेत करते हैं कि -

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।

मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।

सच पूछो तो यह अहं की ही दीवार है जो जीवात्मा को परमात्मा से अलग किये हुये है अस्तंु-

इसके साथ ही जप और ध्यान की श्रृख्ंला कभी नहीं टूटनी चाहिये।

अपने में देवत्व आधार करके ही देवता का पूजन करना चाहिए।

इस प्रकार ध्यान करके की गई पूजा फलीभूत होती है।

जब तक अन्तः पूजा का अधिकार न मिले, तब तक तो बाह्य पूजा ही करनी चाहिये। अधिकारी होते ही बाह्य पूजा को छोड़ कर अन्तःपूजा में लग जाये। क्योंकि आभ्यन्तर पूजा थोडे़ ही समय में साधन को स्वयं को लीन कर देती है-ऐसा कथन है। उपाधि शून्य ज्ञान ही उसका परम रूप  है। ज्ञान-मय रूप  में जब आश्रय हीन चित्त लग जाता है तब ही साधक की साधना सफल होती है, यह लक्ष्य होना चाहिये।

बाह्य पूजा में तत्पश्चात् हृदय में जिस क्रम से आह्वाहन आदि किया हो, ठीक उसी के विपरीत क्रम से विसर्जन भी करना चाहिये। इस प्रकार से पूजा सम्पन्न से वांछित सिद्धि प्राप्त होती है।


‘स्मारिका‘ अखिल भारतीय धर्म संघ का द्वितीय पान्तीय अधिवेशन, संस्कृत प्रचार सम्मेलन, दिनांक 26-30 अप्रेल 1982, श्री आनन्द आश्रम, बरेली।, पृष्ठ -21