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गोरा-बादल मैं कहलाऊॅं


मुझे न दो वह शिक्षा जिससे ‘‘हीरोकट‘‘ ही बन रह जाऊॅं ।

मुझे चाहिए शिक्षा ऐसी ‘गोरा-बादल‘ मैं कहलाऊॅं।।

गुरू  गोविन्द सिंह के बालक अमर हुए जो  शिक्षा पाकर ,

‘‘बाल हकीकत‘‘ बना ‘हकीकत‘ जिसने अपना सिर कटवा कर,

‘‘जयमल पत्ता‘‘ जिस साॅंचे में ढले मुझे भी उसमें ढालो।

बढता आता है अॅंधियारा कैसे उसमें आग लगाऊॅं।।

गोरा बादल मैं कहलाऊॅं।

मुझसे भावी भारत की हैं बॅंधी हुई अनगिन आशायें,

लेकिन मेरा रूप देख कर लाखों पतझड़ हॅंसी उड़ायें ।

दोगे मेरा हाथ तात, जब कल के हाथों में ले जाकर -- 

खोया खोया और निकम्मा कहीं न अपने को तब पाऊॅं।।

गेरा - बादल मैं कहलाऊॅ।।

शासन अपना, अपने पर हो इसको प्रिय स्वतन्त्रता कहते,

जो उच्छ्ंख्ल बने फिरते  वे नित दास बने ही रहते,

ऐसा पाठ पढ़ाओ मुझको अपने को पहचान सकूॅं मैं --

बनूॅं सहारा मैं प्रकाश का ज्योतित रह कर राह दिखाऊॅ।।।

गोरा- बादल मैं कहलाऊॅं।


(1) मासिक  पत्रिका  - बाल सखा - जनवरी 1968 वर्ष 52 अंक - 1

सम्पादक - लल्ली प्रसाद पाण्डेय

(2) मासिक पत्रिका ‘विश्व ज्योति‘ अक्टूबर 197., पृष्ठ - 43, संपादक आचार्य विश्वबन्धु, साधु आश्रम, होशियारपुर पंजाब

(3) विद्यालय पत्रिका राष्ट््रीय कृषि एवं उद्योग इन्टर कोज, सिरौली, बरेली वर्ष 1972 अंक -5, संपादक कान्तिस्वरूप् वैश्य

(4) अमर उजाला, बरेली हिन्दी दैनिक 28 अगस्त 1983, पृष्ठ -5