अभी तो करना है जन-जन को, भारत गौरव का निर्माण।
मिटी हुई सी रेखाओं से फिर से, चित्र बनाने हैं,
घास फूस की झोंपड़ियों के बदले महल सजाने है,
लुटा हुआ जो युग से जीवन भरनी उसमें नव सुषमा,
अभी तो इस धरती के सौरभ से, जगने है कितने प्राण।
बांध और निर्माण केन्द्र, नव भारत के हैं शुभ मन्दिर,
यही हमारे गिरजा, मस्जिद, श्रमिकों के हैं भाग्य प्रखर,
भौतिक उन्नति के दर्पण में दिखती है प्रभु की छाया,
अभी तो देना है मिल जुल कर हमको इसका शुभ्र प्रमाण।
बहक न जाना ऊंच नीच के पथ में, उन्नति के राही।
पथ का पत्थर भी है तेरा अंग, सृजन के उत्साही
बीते कल की आकुलता में कल का सुख ना तड़ उठे,
अभी तो साथी संग है ऐसे चतुर-चतुर से, पर, नादान।
इन निर्माणों से भी बढ़ चढ़ चरम लक्ष्य है शेष अभी,
मानवता की प्राण सुरक्षा, शेष मनुज अभिषेक अभी,
शक्ति-भक्ति के चिर संगम से जीवन को उत्थान मिले,
अभी तो इस आचरण-सुधा का करना है हमको मधुपान।
भारत सरकार की पत्रिका ‘‘ग्राम सेवक, वर्ष 1956 के नवम्बर में पृष्ठ 13 पर प्रकाशित।