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जीवन साथी के प्रति(कविता)


 शोभा मेरी आत्मा तृप्ति की, साध तुम्ही बन पाई-
जर जर तन से क्या, जब तुम नित, नई वधू सी भाईं।
रूप सुरा, यौवन आकर्षण, सच तो यह है साथी-
प्यार न बन्दी इनका, है यह मनसिज की पहुनाई।।

बरेली के किसी समाचार पत्र में प्रकाशित।



जननायक को श्रद्वांजलि

फूल - स्वर्ग का मानवता की फुलवाली महका कर,
लौट गया फिर नन्दन-बन में अपनी छवि छिटका कर।
किन्तु हुआ यह सब कुछ सहसा फटी धरा की छाती,
रोक न पाया, पथ नभ रोया परवशता दिखलाकर।।

वह तो स्वयं राष्ट्र था जिसको सीमा बांध न पाई-
पीड़ित भीत जगत ने जिससे अपनी पीर मिटाई।
अगर न होता ऐसा तो फिर राह न पाती दुनिया-
स्नेह दीप से पाये बाती ज्योतित हो अंगनाई।।

लेकिन शोक-मग्न होकर भी श्रद्वा दीप न जलता-
भारी मन का बोझा लेकर निर्बल तन कब चलता।
जीवन गति, वियोग से पाता निर्झरणी यह कहती-
दीप जला लो बढ़ने वालो कह जाता रवि ढलता।।

‘स्वतन्त्र भारत‘ दैनिक हिन्दी समाचार,लखनऊ पत्र के अंक 7 जून 1964 में पृष्ठ -7
‘रसवंती‘ मासिक पत्रिका,लखनऊ नेहरू स्मृति अंक, वर्ष-7,अंक-7, जुलाई 1964 संपादक डा0 प्रेम नारायण टंडन, पृष्ठ 53