वैभव देखा जब जल-कण का,
सिमट गया तूफान लहर में।
चैंक उठी प्रभुता की छाया,
कण में देखी जब निज काया
किसने बांटा, किसको बांटा?
शेष शून्य था कि अहर में।
समझ न पाया निज प्रतिध्वनि को,
श्वास बनी उच्छ्वास विकल हो,
जीवन की मुसकान व्यंग बन
लगी अखरने पहर-पहर में,
उद्वत जग का पथिक अनूठा,
लगा दीखने रूठा-रूठा,
असमंजस, संघर्ष न माना,
तब से रवि है जलधि हहर में।
मासिक पत्रिका ‘‘भारती‘‘ भारतीय विद्या भवन, चौपाटी बम्बई-7 द्वारा प्रकाशित संपादक चन्द्र शेखर पाण्डेय, अंक 7 वर्ष-4, फरवरी 1960