भारत को भारत की नजरों तुम जरा निहारो--
इसकी भी भाषा में साथी बढ़कर इसे पुकारो।
सीधा, बच्चा सरल हृदय है इसको मत उरूझाओ--
कागज के फूलो से इसका तुम मत रूप संवारों।।1।।
पश्चिम के उपनेत्र लगाकर देखें अपना दर्पण--
लाख चाहने पर भी लेकिन कर न सके निज दर्शन।
उलटा हुआ, दिव्यता खोयी खोया अपना आपा--
सरल दृष्टि बन गयी वक्रतम लगता दूषित तन मन।।2।।
कुछ को प्रिय वाशिगटन लन्दन कुछ को पेंकिग प्यारा--
भक्त मास्को के कुछ पूजें प्रतिपल लाल सितारा।
कुछ का हृदय मरूस्थल में जो श्रद्धा दीप जलाये--
किन्तु न निज घर में ही ये जन होने दे उजियारा।।3।।
विश्व बन्धुता के नारों में इतना नेह बहाया--
घर का दीपक खाली होकर बना तमस की छाया।
कितना रूखा, सूखाा, सूना, बढ़ी यहां तक सीमा--
घृणा करें मन तन से, मन से करती नफरत काया।।4।।
स्वतंत्र भारत लखनऊ के किसी रविवासरीय अंक में प्रकाशित