नौ लाये तेरह के भूखे।
हम पहली को तनखा लाये, घर की दुनिया आस लगाये,
बैठी थी जो हर्षित ऐसे, फूल खिले हों फीके जैसे।
पिछला-अगला जोड़ लगाया, दिया किराया राशन आया,
कुछ भुगताया इधर उधर का, ज्यों-त्यों काटा पाप उदर का।।
ऐसे बट तनखाह गयी सब,
टीस,फीस की जीवन सूखे।
रोटी है तो वस्त्र नहीं है, यहां कहां सुख और कहीं है,
कपड़ों पर पैबन्द लगाकर, निर्धनता के जख्म छिपा कर।
घरवाली आंसू बहाती, ‘मांग‘ अधूरी हॅंसी उड़ाती,
बिन जूतों के पढ़ने जाते, बच्चे बाबू के कहलाते।
इधर -उधर सब लेने वाले,
बिगड़-बिगड़ कर बोले रूखे।
एक अकेला जीवन रेला, किसका मोह खेल यह खेला,
अंदर-बाहर की चिन्ता खाये, मौत खड़ी जैसे मुस्काये।
होता जाता बोझिल जीवन, और और ही दिन दिन क्षणक्षण,
यह भी तो है जीना-जीना, खून जिगर का अपने पीना।
माया छल के, छाया ढल के,
कल की आशा रखती भूखे।
जीना मरना बीमारी भी आ पड़ती दुनियादारी भी,
महंगाई का यह आलम है, गम को भी जीने का गम है।
दो पाटों में मध्य वर्ग को, पिसने हेतु बनाया है तो,
शायद जग के भगवानों ने कुछ धरती के अरमानों ने।
फूलों का अस्तित्व यही सब
रहे बहारी कंटक
‘स्वतंत्र भारत‘ हिन्दीदैनिक, लखनऊ में प्रकाशित
‘सहयोगी‘, हिन्दी साप्ताहिक, कानपुर 13 अप्रेल 1964 वर्ष -18, अंक 14, पुष्ठ-5