सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

नैनन नीर भरे(कविता)

 



हंस कर कीमत बनाया तुमको--नैनन नीर जरे-- अब नैनन नीर जरे।


जाने किसकी बातों में आ कैसी आग लगाई,

बावन के ढाई पग जैसे निकले अक्षर ढाई,

प्रीत बुरी रे, प्रीत बुरी यह ब्रज का कण-कण कहता--

बंशी की सुधियों को लेकर--यमुना तीर जरे-

अब यमुना तीर जरे।।1।।



रेखा चित्र बना कर कोई उसको रंगता रहता,

मौन बना कर मुझको भी खुद, सूने न कुछ भी कहता,

अब तो घावों के सुमनों की खुशबू है सुख देती-

पहले पीड़ा दुख देती थी-दुख को जीर जरे-

अब दुख को पीर जरे।।2।।



इस पंथ में राहें ही राहें मंजिल भी यह कहती,

बीत उम्र सब जाती चलते, दो अंगुल दूरी रहती,

मैं तन, मन तुम मिले न मिल कर राधा मोहन जैसे-

इसी लिये तो बाट देखती--तिल-तिल धीर जरे--

अब तिल-तिल धीर जरे।।3।।



काव्य पुष्प, पूर्वोतर रेलवे की मंडल हिन्दी समिति, इज्जतनगर की ओर से प्रकाशित।