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दो मुक्तक(कविता)

केन्द्रित हो होकर हिरण्य जब, करता साधन सीमित- त्राहि त्राहि तब मचती भूपर, भय से जन अनुकम्पित। दैत्य-वृत्ति से होम रचा कर, भस्म होलिका करती-- किन्तु राम का प्यारा फिर भी, है प्रह्लाद सुरक्षित।।1।। आये फिर नर-सिंह एक ही, मुक्त सभी को करने-- रंजन जन को शुभ जीवन देने, जीवन में रंग भरने। पर प्रह्लाद तपस्वी उसका, कर सकता आह्वाहन- भीरू, भंगोड़े, कुटिल, स्वार्थरत, जनमे केवल मरने।।2।। ‘आचार्य - हिन्दी साप्ताहिक 22 मार्च 1962, वर्ष 10, अंक 51, पृष्ठ-1

दो मुक्तक( कविता)

वर्तमान सम्मान न अपने युग से कब पाया-- भूत बना, सुधियों का स्वामी, मानस पर जा छाया दीप जलाये क्षणे क्षणे जब, उसने भावी के घर-- तब अतीत को दुनिया रोई- हर कोई पछताया।।1।। कर्मठ रवि की कदर न जब यह जग वाले कर पाये-- ओढ़ सांझ की चादर उसने, रक्तिम अश्रु बहाये। तम की प्यारी इस नगरी ने दीप जलाये हॅंस कर-- पर कर्तव्य परायण दिनकर, पुनः प्रमाद मिटाये।।2।। जागृति- हिन्दी मासिक पत्रिका, जुलाई 1962 अंक पृष्ठ 33

मेरा प्यार उपेक्षित करके (कविता)

मेरा प्यार उपेक्षित करके तुम भी प्यार नहीं पाओगे, सुधियों के सूखे पनघट से कुछ भी सार नहीं पाओगे।। ललित लोल लावण्य लजीली, लतिका वन में शोभापाती तन से तरूणाई को पाकर अल्हड़ मस्ती से बल खाती किन्तु सभी यह प्राण प्रणय के बन्धन में बंध कर ही होता, मधुवन के अभिसार बिना तुम, कर श्रृंगार नहीं पाओगे मेरा प्यार उपेक्षित करके तुम भी प्यार नही पाओगे। प्रकृति पुरूष के भुजबन्धन में बंधी तभी विस्तार हुआ यह टीस घुटी जब हृदय में विस्तृत तब से प्यार हुआ यह लक्ष्य, पथिक के चरणों से ही पावन सदा हुआ करता है मुझको करके सीमित तुम भी कर विस्तार नहीं पाओगे, मेरा प्यार उपेक्षित करके तुम भी प्यार नहीं पाओगे।। हिन्दी साप्ताहिक - सहयोगी, कानपुर, 26 फरवरी 1962ई0, वर्ष-16 अंक-9, पृष्ठ संख्या 9

एकता के सूत्रधार - संत कबीर (लेख)

         शब्द ‘ कबीर ‘ अपना परिचय देते हुए कहता है कि मैं अरबी भाषा की गोदी में पला ओर मुस्लिम संस्कृति के विस्तार के साथ भारत भूमि में आया था। आप पूछेगें - कि मेरी अमिधा शक्ति क्या है ? तो सुनिये , मैं किसी की विशिष्टता प्रसिद्धि और महानता का द्योतक हू। साथ ही , यह भी संकेत करता हूं कि मेरे इस शब्द का चोला किसी मुस्लिम परिवार में जन्में बालक को ही पहनाया जाता है। इसलिए संत कबीर का नाम किसी मुस्लिम परिवार में जन्म लेने के कारण ही इस्लामिक रीति रिवाज के अन्तर्गत ही रखा गया था। किंवदन्तियोे के विवाद में न पड़ते हुए , यदि हम संत रैदास और संत गरीबदास की वाणियों का अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि उन्होंने संत कबीरदास को जन्म से मुसलमान और एक सिद्ध पुरुष माना हे। ‘ यथा नाम तथा गुण ‘- कबीर के नाम ने यह सिद्ध भी कर दिया।             समय के काल - पत्र पर किये हुए महापुरुषों के ...