शब्द ‘कबीर‘ अपना परिचय देते हुए कहता है कि मैं अरबी भाषा की गोदी में पला ओर मुस्लिम संस्कृति के विस्तार के साथ भारत भूमि में आया था। आप पूछेगें - कि मेरी अमिधा शक्ति क्या है? तो सुनिये, मैं किसी की विशिष्टता प्रसिद्धि और महानता का द्योतक हू। साथ ही, यह भी संकेत करता हूं कि मेरे इस शब्द का चोला किसी मुस्लिम परिवार में जन्में बालक को ही पहनाया जाता है। इसलिए संत कबीर का नाम किसी मुस्लिम परिवार में जन्म लेने के कारण ही इस्लामिक रीति रिवाज के अन्तर्गत ही रखा गया था। किंवदन्तियोे के विवाद में न पड़ते हुए, यदि हम संत रैदास और संत गरीबदास की वाणियों का अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि उन्होंने संत कबीरदास को जन्म से मुसलमान और एक सिद्ध पुरुष माना हे। ‘यथा नाम तथा गुण‘- कबीर के नाम ने यह सिद्ध भी कर दिया।
समय के काल-पत्र पर किये हुए महापुरुषों के हस्ताक्षरों से ज्ञात होता है कि उस समय के सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक हालात क्या थे? संत कबीर के समय के हस्ताक्षर भी यही बताते है कि उस समय भी हर क्षेत्र में मानवीय मूल्यों का कितना ह्रास हो चुका था। अनाचार, भ्रष्टाचार का बोलवाला था, धार्मिक आस्थाएं डावाडोल हो चुकी थी, आडम्बर-पाखण्ड जन-मानस पर छाया हुआ था। क्या हिन्दू क्या मुसलमान सब इससे ग्रस्त थे। इसी से क्षुब्ध होकर उन्होंने कहा थाः-
‘‘कांकर पाथर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाय।।‘‘
और हिन्दुओं के लिए-
‘‘पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूॅ पहार।
या ते तो चाकी भली, पीस खाय संसार।।‘‘
इस प्रकार एक शल्य चिकित्सक की भांति उन्होंने समाज को बुराइयों से मुक्त कराने हेतु आप्रेशन नही किया है और उन्होंने कहा-
‘‘अरे इन दोउन राह न पाई।
हिन्दू की हिन्दुआई देखी, तुरकन की तुरकाईं
कहत कबीर सुनों भई साधों, एक राह द्वै जाई।‘‘
कबीर जैसी विभूतियों को, भगवान तो स्वयं दिव्य ज्ञान से अलंकृत करके ही भेजा करता है। वे तो संसार को शिक्षित करने हेतु ही आया करते हैं। उनके लिए अ आ इ ई की शिक्षा कैसी! क्बीर जुलाहे, नीरू - नीमा के घर कपड़ा बुनते और साथ ही श्रुति-निरति के ताने बाने से बुनी इस मानव शरीर की चादर का भी बोध कराते जाते थे। यह लोक जिसे हम संसार कहते है, इस बात को उलटा ही ले जाता हेै, शायद इसीलिए उन्होंने बहुत सी उलटबांसियों के माध्यम से यहां के विकृत मानव को समझाने की भी चेष्टा की। एक कुशल शिक्षक की भाति, आत्म तत्व का बोध कराने का भी प्रयत्न किया है। कबीर कहते हैं - हे मूर्ख प्राणी! यह हमारा शरीर जो पंचभूतों से बना है-देख, इसके विभिन्न तत्वों को जो अलग-अलग होते हुए भी कैसे एकता के सूत्र में बंधे है।यदि ये अपनी अपनी ढपली बजाने लग जायें, तो क्या तू जीवित रह सकेगा? अपने-अपने अहं के पत्थरों से उस एक ईश्वर के जाने वाले मार्ग को मत रोको।
विलक्षण प्रतिभा के स्वामी कबीर ने बचपन से ही अपने अन्दर छिपी दिव्यता के दर्शन लोगों केा कराने शुरू कर दिये थे। पूर्व जन्म के संस्कारों से अनुप्रेरित अपनी अधूरी साधना को पूर्ण करने हेतु, वे घर से निकल पड़े - और जा मिले नाथ सम्प्रदाय के योगियों के साथ, किन्तु कुछ समय तक ही उनका संग साथ निभाया। कच्चे घड़े पर जो अंकित कर दिया जाता है, वह पकने पर मिटाने से भी नहीं मिटता। ऐसे ही उस विचारधारा की छाप, बहुत गहराइयों को छूती हुई कबीर की वाणी में मिलती है। स्वरोदय का ज्ञान उन्होंने नाथ- सम्प्रदाय के योगियों से ही प्राप्त किया था। यह ज्ञान वह ज्ञान है, जिससे व्यक्ति स्वयं तो प्रकाश पुंज बनता ही है, साथ ही अपने आलोक से दूसरो को भी आलोकित करता है। इस शरीर में कोई बहत्तर हजार नाड़ियाॅं है, इसमें - इड़ा पिंगला और सुषुम्ना- तीन प्रमुख हैं। इन तीनों में से भी सुषुम्ना तो योग साधना में बहुत ही महत्व रखती है। कबीर से पूर्व शायद ही किसी ने हिन्दी काव्य में इस नाड़ी की कार्य प्रणाली की व्याख्या की हो। कबीर ने बहुत ही सहज और सरल ढंग से इसका वर्णन करते हुए यूॅ कहा हैः-
‘‘सुसुमन नारी सहज सनमानी
पिवे सौ पीवन हारा। ‘‘
कबीर न तो योगियों के ही बने और न ही सूफी सन्तों के। उन्हें इन पंथों में पड़ाव ही दृष्टिगत हुआ, मंजिल नहीं। उन्हें गुरु की तलाश थी-
‘जिन खोजा तिन पाइयां‘
उन्हें सत्गुरु मिला, एक युक्ति से, काशी के गंगा घाट पर एक दिन वे ब्रह्म मुहूर्त में वहां लेट गये, जहॅं से परम वैष्णव संत स्वामी रामानन्द जी प्रायः गंगा स्नान को आया करते थे, यूं ही स्वामी जी के श्री चरणो ने कबीर के सिर को स्पर्श किया, उनकी रसना से राम नाम का रस टपक पड़ा- वे बोले ‘बेटा राम-राम कहो‘ बस कबीर भी यही चाहते थे। कबीर ने गुरु मन्त्र ले लिया, इसी मन्त्र ने उन्हें मंजिल तक पहुंचा दिया। किन्तु कबीर के रामः-
‘‘रमन्ते योगिनो यस्मिन् सः रामः‘‘
और उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा भीः-
‘‘दसरथ सुत तिहुॅं लोक बखाना
राम नाम का मरम न जाना।‘‘
निराकार के उपासक कबीर के हृदय में अपने साकार गुरु के प्रति कितनी अगाध श्रद्धा भक्ति थी ये दोहे उन्हीं के साक्षी हैंः-
‘‘गुरु गोविन्द दोऊ मिले, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो मिलाय।।‘‘
और - ‘‘ तीन लोग नौ खण्ड में, गुरु ते बड़ा न कोई।
कर्ता करे न करि सके, गुरु करे सो होइ।।‘‘
स्वामी रामानन्द जी भी जो परम वैष्णव विचारधारा के संत थे वे भी यह मानते थे कि:-
‘‘ जात पात पूछे न केाई।
हरि को भजे सो हरि का होई।।‘‘
इसीलिए कबीर ने उन्हें अपना गुरु बनाया था।
मनुष्य जीवन के दो भाग होते है, एक जन्म का तथा दूसरा कर्म का। कबीर मुस्लिम वंश के होते हुए भी कर्म क्षेत्र में वे हिन्दू ही थे। एक वाक्य में यदि कबीर के समस्त व्यक्तित्व और कृतित्व की व्याख्या की जाये तो यूं कह सकते है कि कबीर तरण-तारणी गंगा की भांति है जिसमें कई धारायें आकर मिलती हैं और अन्त में वे एक महासिन्धु में प्रविष्ट होते दीखती हैं। इसी लिए यह स्वीकार करने को तनिक भी संकोच नहीं कि कबीर एकता के सूत्रधार थे।
आज फिर हम अपने देश में मानवीय मूल्यों का ह्रास देख रहे हैं, जीवन के हर क्षेत्र में क्या सामाजिक, धार्मिक और क्या राजनीतिक धरा पर। आओ प्रार्थना करें उस ईश्वर से कि फिर किसी कबीर को भेजे जो उनकी भांति एकात्मवाद का सबको बोध कराकर समय पूर्व ही भारत-भूमि का हृदय टूटने से बचाये।