मेरा प्यार उपेक्षित करके तुम भी प्यार नहीं पाओगे,
सुधियों के सूखे पनघट से कुछ भी सार नहीं पाओगे।।
ललित लोल लावण्य लजीली, लतिका वन में शोभापाती
तन से तरूणाई को पाकर अल्हड़ मस्ती से बल खाती
किन्तु सभी यह प्राण प्रणय के बन्धन में बंध कर ही होता,
मधुवन के अभिसार बिना तुम, कर श्रृंगार नहीं पाओगे
मेरा प्यार उपेक्षित करके तुम भी प्यार नही पाओगे।
प्रकृति पुरूष के भुजबन्धन में बंधी तभी विस्तार हुआ यह
टीस घुटी जब हृदय में विस्तृत तब से प्यार हुआ यह
लक्ष्य, पथिक के चरणों से ही पावन सदा हुआ करता है
मुझको करके सीमित तुम भी कर विस्तार नहीं पाओगे,
मेरा प्यार उपेक्षित करके तुम भी प्यार नहीं पाओगे।।
हिन्दी साप्ताहिक - सहयोगी, कानपुर, 26 फरवरी 1962ई0, वर्ष-16 अंक-9,
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