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दो मुक्तक( कविता)



वर्तमान सम्मान न अपने युग से कब पाया--

भूत बना, सुधियों का स्वामी, मानस पर जा छाया

दीप जलाये क्षणे क्षणे जब, उसने भावी के घर--

तब अतीत को दुनिया रोई- हर कोई पछताया।।1।।



कर्मठ रवि की कदर न जब यह जग वाले कर पाये--

ओढ़ सांझ की चादर उसने, रक्तिम अश्रु बहाये।

तम की प्यारी इस नगरी ने दीप जलाये हॅंस कर--

पर कर्तव्य परायण दिनकर, पुनः प्रमाद मिटाये।।2।।


जागृति- हिन्दी मासिक पत्रिका, जुलाई 1962 अंक पृष्ठ 33